मध्यप्रदेश अपने हरे-भरे वनांचल, विशिष्ट जनजातीय क्षेत्र के साथ कलाओं में भी विशिष्ट स्थान रखता है। सृजनात्मक सौंदर्य, शिल्पकला, मानव की आवश्यकता रही है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है, जिसमें शारीरिक, मानसिक कौशल का प्रयोग होता है। प्राचीन काल में सभ्यताओं के विकास के साथ ही प्रदेश की रूपंकर विकसित हुई। विभिन्न शिल्प कलाओं में परंपरागत रूप से काम करने वाले लोगों की समाज में बहुत पहले से जातिगत पहचान बन गयी है। उन्हें कार्य एवं कला के अनुसार जाना जाने लगा। जैसे मिट्टी से कुंभ बनाने वाला, लोहे के औजार बनाने वाला लोहार,ताँबे का काम करने बालाताप्रकार, काष्ट कला का कार्य करने वाला सुतार, बढ़ई, स्वर्ण का काम करने स्वर्णकार, बॉस के वस्त्र बनाने वाले को बॉस फोड़, बसोड़, बरगुण्डा, जिनगर, खटीक, पनिका, दर्जी, लखेरा, भरेव, कसेरा, घड़वा, छीपा, बुनकर, सिलावट, चितरे आदि जातियाँ परम्परागत रूप से प्रतिष्ठित हुईं।
ये जातियाँ जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण और बिक्री प्रारंभ से करती आई हैं। उपयोगी सामग्री के साथ सौन्दर्यपरक और अलंकरण युक्त अनुष्ठानिक अनुपूर्तियाँ भी इन्हीं जातियों पर आश्रित होने के कारण ये जातियाँ हमारी संस्कृति की धरोहर हैं। शिल्प विधाओं के संरक्षण, विस्तार और सौन्दर्यपरकता में कई जातियों के पुराप्रतीक स्मृतियों को सहज रूप से देखा जा सकता है, जिससे उनकी प्राचीन कला और संस्कृति का परिचय मिलता है।
एक आदिवासी मिट्टी, लकड़ी, लोहे, बाँस, घास-पत्तों आदि की उपयोगी और कलात्मक वस्तुओं का सृजन परम्परा से करता आया है। इसी कारण जनजातियों के पारम्परिक शिल्पों में वैविध्य के साथ आदिमता सहज रूप से दिखाई देती है।
मिट्टी शिल्प
मिट्टी शिल्प आदि शिल्प है। मनुष्य ने सबसे पहले मिट्टी के बर्तन बनाये। पृथ्वी के निर्माण के साथ ही मिट्टी शिल्प की आद्यकथा आरंभ होती है। मिट्टी के खिलौने और मूर्तियाँ बनाने को प्राचीन परम्परा है। मिट्टी का कार्य करने वाले कुम्हार होते हैं। लोक और आदिवासी दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं के साथ कुम्हार परंपरागत कलात्मक रूपांकारों का भी निर्माण करते हैं। भारत के विभिन्न अंचलों की मिट्टी शिल्प कला की ख्याति सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहुँची है। मिट्टी में मध्यप्रदेश के झाबुआ एवं अलीराजपुर के शिल्पियों द्वारा अत्यंत सुन्दर कलात्मक बारीक अलंकरण का कार्य किया जाता है, इस कारण झाबुआ एवं अलीराजपुर के मिट्टी शिल्प सबसे अलग पहचान जाते हैं । झाबुआ, मण्डला और बैतूल आदि के मिट्टी शिल्प अपनी-अपनी निजी विशेषताओं के कारण महत्वपूर्ण: स्थान रखते हैं। विभिन्न लोकांचलों की प्रारम्परिक मिट्टी शिल्प कला का वैभव पर्व -त्यौहारों पर देखा जा सकता है।
कंघी कला
सम्पूर्ण भारत के ग्रामीण समाज के आम तौर पर और आदिवासी समाज में खास तौर पर अनेक प्रकार की केंघियों का प्राचीन काल से ही प्रचलन चला आ रहा है। आदिवासियों में तो कंधियों का इतना अधिक महत्व है कि केंघियों अलंकरण, गोदना एवं भित्ति चित्रों में एक अभिप्राय के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी हैं। इन केंघियों में घड़ाई के सुंदर काम के साथ हो रत्नों की जड़ाई, मीनाकारी और अनेक अभिप्रायों द्वारा उनका किया जाता है। कंघी बनाने का श्रेय बंजारा जनजाति को है। मालवा में कंघी बनाने का कार्य उज्जैन, रतलाम, नीमच से होता है।
तीर-धनुष कला
वन्य जातियों में तीर धनुष रखने की परम्परा है। तीर-धनुष बाँस, मोरपंख, लकड़ी, लोहे, रस्सी आदि से बनाये जाते हैं। तीर-धनुष शिकार के लिए बनाये जाते हैं। भील, भिलाला, बारेला पहाड़ी कोरवा, कमार आदि तीर-धनुष चलाने में कुशल होते हैं। तीर-धनुष भील आदिवासियों की पहचान बन गई है। प्रत्येक भील धनुष बाण अपने साथ रखता है। भील तीर चलाने में निपुण और निशाना लगाने में अचूक होते हैं । सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रत्येक आदिवासी तीर-कमान अपने हाथ से तैयार करते हैं। धनुष में कई तरह सजावट की जाती है जिसमें कला का उपयोग होता है।
बाँस शिल्प
बाँस से बनी कलात्मक वस्तुएँ सौन्दर्यपरक और जीवनोपयोगी भी होती हैं, इसलिए, शिल्प की महत्ता जीवन में और बढ़ जाती है। अलीराजपुर, झाबुआ, मण्डला, डिण्डौरी आदि जिलों में जनजातियों के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग के लिए बाँस की बनी कलात्मक चीजों का स्वयं अपने हाथों से निर्माण करते हैं। बाँस का कार्य करने वाली जातियों में कई सिद्धहस्त कलाकार हैं। झाबुआ, मण्डला में बाँस शिल्प के अनेक परंपरागत कलाकार हैं ।
पत्ता शिल्प
पत्ता शिल्प के कलाकार मूलतः झाड़ू बनाने वाले होते हैं। पेड़-पौधों में विभिन्न आकारों में मिलने वाले पत्तों के प्रति मनुष्य का मन आदिकाल से ही आकर्षित रहा है। मनुष्य ने इन पत्तों में कला के आयाम ढूँढ लिये। छिंद पेड़ पत्तों से कलात्मक खिलौने, चटाई, आसन, दूल्हा-दुल्हन के मोढ़ आदि बनाए जाते हैं। पत्तो की कोमलता के अनुरूप उनमें विभिन्न कलाभिप्रायों को बुनने में अनेक जातियों और जनजातियों के पारम्परिक कलाकार आज भी लगे हैं साथ ही दोना पत्तल भी बनाए जाते हैं ।
गुड़िया शिल्प
नयी पुरानी रंगीन चिन्दियों और कागजों से गुड़ियाएँ बनाने की परम्परा लोक में सब दूर देखी जा सकती है। खिलौने में गुड़िया बनाने कौ प्रथा बहुत पुरानी है। परंतु कुछ गुड़ियाएँ पर्व त्यौहारों से जुड़कर मांगलिक अनुष्ठानपरक भी होती हैं, जिनका निर्माण और बिक्री उसी अवसर पर होती है। ग्वालियर अंचल में कपड़े, लकड़ी और कागज से बनाई जाने वाली गुड़ियो की परम्परा आनुष्ठानिक है। गुड्डे-गुड़िया का ब्याह रचाया जाता है; उनके नाम से व्रत-पूजा कौ जाती है। ग्वालियर अंचल की गुड़ियाएँ अपने आकार-प्रकार, साज-सज्जा, वेशभूषा और चेहरे की बनावट के लिए प्रसिद्ध हैं। झाबुआ भीली गुड़िया का केंद्र बन गया है। भीलों की शारीरिक बनावट, उनकी वेशभूषा; अलकरण, तीर धनुष आदि को देखकर आकृति को कपड़े, लकड़ी तार आदि से बनाने का काम स्थानीय कलाकारों ने किया, तब से झाबुआ की भीली गुड़ियाएँ प्रदेश और प्रदेश के बाहर तक प्रसिद्धि पागई है। झाबुआ की गुड़ियाओं को राज्य स्तर प्रशंसा एवं पुरस्कार प्राप्त हो चूका हैं। ग्वालियर की गुड़िया देश तथा विदेश में विख्यात हुई है।
छीपा शिल्प
कपड़े पर हाथ से बनाये जाने वाले छीपा शिल्प में विभिन्न छापों को उकेरा जाता है। इनमें भील आदिवासियों के विभिन्न जातीय प्रतीकों का समावेश होता है। आज भी अधिकांश भी आदिवसीयों द्वारा इन्हीं वस्त्रों का उपयोग किया जाता हैं। पिछले वर्षों में छीपा शिल्प कला ने एक व्यावसायिक उद्योग का रूप ले लिया है। बाग, कुक्षी, मनावर, गोगार्वो, खिराला, उज्जैन, छीपा शिल्प के पारम्परिक केन्द्र हैं। उज्जैन का छीपा शिल्प भेरूगढ़ के नाम से देश तथा विदेश में विख्यात है। छीपा शिल्प में कई कलाकारों को प्रदेश स्तर और राष्ट्रीय स्तर के सम्मान मिल चुके हैं।
भीली चोमल, बटुआ, थैलियाँ, मोतीमाला : भील-भिलाला महिलाएँ दैनिक उपयोग के लिए रंगीन धागों से सुंदर चोमल, बटुआ और थैलियाँ बनाती हैं। धार, झाबुआ, अलीराजपुर क्षेत्र में कलात्मक चोमल बटुआ अत्यधिक लोकप्रिय है। भीली महिलाएँ उन्हें बनाने में पारम्परिक रूप से पारंगत होती हैं ।
भीली महिलाएँ तरह-तरह के मोतियों की मालाएँ पहनने की अत्यधिक शौकीन होती हैं | ये मालाएँ भीली स्त्रियाँ स्वयं तैयार करती हैं। भीली लड़कियाँ बचपन में घर में अपने से बड़ी उम्र की महिलाओं से खाना बनाना सीख जाती हैं। मोती मालाओं की प्रमुख विशेषता उनकी गुँथावन है, जिससे मालाओं में सुंदर जालियों तथा फूलों का आकार बनता है। माला में छोटे-छोटे रंगीन तथा. सफेद मोतियों का उपयोग अधिकता से होता है।
प्रस्तर शिल्प
मंदसौर और रतलाम जिला इसके केन्द्र कहे जा सकते हैं जहाँ पत्थर को विभिन्न आकार प्रदान करने वाले श्रेष्ठ और परम्परागत कलाकार मौजूद हैं। ये शिल्पकार गूजर, गायरी, जाट, भील आदि जातियों और जनजातियों के लिए देवनारायण, बाधा पाट्य, चीर्या, नाग, बावजी, भेरु बावजी, रामदेवजी, शक्ति, भैंसासुरी माता, नाहरसुरी माता, गपल्या, वीर तेजाजी, गणपति, दुर्गा, हनुमान, आदि हिन्दू देवलोक से जुड़ी मूर्तियों का निर्माण करते हैं । इनके अलावा वे कुछ मूर्तियाँ तथा शिल्प ऐसे भी बनाते हैं, जिसका महत्व सौन्दर्यात्मक अथवा दैनिक उपयोग की वस्तुओं का है। भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियां और ग्वालियर पौराणिक देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाने का केंद्र है।
आदिवासी और लोक चित्रकला
आदिम जातियों में प्रागैतिहासिक काल से ही जीवन का सौन्दर्य बोध विकसित हुआ। गुहा गृहों की दीवारों पर अलंकरण और शिकार चित्र इसके प्रमाण हैं। घर की धारणा बनते ही घर की दीवारों को अलंकृत करने की तीव्र लालसा में भीतों पर चित्र और अलंकरण के विभिन्न रूपांकार हमें सभी जनजातियों और जातियों की ग्रामीण स्थापत्य कला में आज भी दिखाई देते हैं। मण्डला के गोंड, बैगा, परधान; बैतूल के गोंड, कोरकू; छिंदवाड़ा के गोंड, भारिया; झाबुआ के भील-भिलाला; रीवा, शहडोल के गोंड, कोल आदि में पारंपरिक |
चित्रकला उद्रेखण कला और मिट्टी से तरह-तरह की कलात्मक जालियाँ, कोठियाँ, पशु-पक्षी, मूर्तियाँ, स्थानीय देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाने की प्रथा दिखाई देती है। भीलों में पर्व-त्यौहारों पर द्वार सरल और माँडने, चौक पूरने की परंपरा है। मालवा में चित्रावण की अद्वितीय परंपरा है, जिसमें विवाह के संदर्भों के साथ-साथ पौराणिक चरित्रों के मौलिक रेखांकन किये जाते हैं। निमाड़, बुंदेलखण्ड और बघेलखण्ड में भी पारंपरिक चित्रों का निर्माण महिलाओं द्वारा विभिन्न पर्व, त्यौहारों पर किया जाता है।
पेमा फत्या (पिथोरा चित्रकला)
जन्म – इनका जन्म चंद्रशेखर आजाद नगर, अलीराजपुर में हुआ था। अप्रैल 2020 में उनका निधन हो गया। पेमा फत्या द्वारा भील आदिवासियों का विश्व प्रसिद्ध पिथोरा चित्रकला में उस्ताद थे। पिथौर चित्रकला की विशेषताएं – पिथौरा पेंटिंग भील जनजाति की एक विशिष्ट कला है। यह कला भारत में एक मात्र ऐसी कला है,जिसमें विशिष्ट ध्वनि सुनना, उसे समझना और लेखन से चित्र रूप प्रदान करना प्रमुख है। इस चित्रकला में घोड़ा पिथौरा का केंद्र होता है। पेमा फत्या को प्राप्त सम्मान 1986 में इन्हें शिखर सम्मान तथा 2007 में तुलसी सम्मान से पुरस्कृत किया है गया।