जोहर साथियों आज हम जानेंगे आखिर क्यों आदिवासी भील जनजाति के लोग धनतेरस नहीं बल्की ‘धान तेरस’ (dhaanteras) मनाती के बारे में | दिवाली से पहले भारत में सभी लोग धनतेरस की तैयारियां करते है लेकिन कुछ आदिवासी भील अपने आनाज को पूजते है |
धान तेरस यह त्योहार आदिवासी भील भाई ख़रीफ़ की फसलों की कटाई होने की ख़ुशी में मानते हैं। आदिवासी समाज बरसो से धान की फसलों की, चाँद-सुरज की और जीवन यापन में सहायक औजारों, आत्मरक्षा के हथियारों और प्रकृति की पुजा करता आया हैं।
आज भी दिवाली पर हर खेत, कुएँ, पशुओं के बांधने के स्थान, खलिहान, घर की चोखट, घर के धारण और यह तक कि गोया (पगडण्डी) में भी दीपक जलाये जाते हैं। ताकि अन्न दाता की क्रिपा बानी सदा के लिए बनि रहे |
क्यों मनाया जाता है धनतेरस?
धनतेरस एक विशेष त्योहार है जो कार्तिक माह में एक विशेष दिन पर आता है। माना जाता है की दिवाली के लिए त्योहार की शुरुआत धनतेरस से ही होती है। धनतेरस को धनत्रयोदशी, धन्वंतरि जयंती, नरक चतुर्दशी और नरक चौदस जैसे विभिन्न नामों से भी पुकारा जाता है।
हम धनतेरस दो महत्वपूर्ण कारणों से मनाते हैं। धनतेरस के दिन लोग अपने घरों में नाना तरह के दीपक जलाते हैं। उनका मानना है कि इससे खुशी, धन और सौभाग्य मिलता है। इस दिन लोग मृत्यु के देवता यमराज की भी पूजा करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि इससे यमराज का आशीर्वाद मिलता है और मृत्यु का भय दूर हो जाता है। धनतेरस के दिन लोग मिठाइयाँ और पकौड़े जैसे बहुत सारे स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं। वे एक-दूसरे से अच्छी बातें भी कहते हैं और एक-दूसरे के लिए शुभकामनाएं भी देते हैं। धनतेरस वाले दिन लोग वाहन भी खरीद ते है |
आदिवासी भील क्यों मानते है धनतेरस ( adivasi dhaanteras )
इधर आधुनिक होने के ढोंग में ज्यादातर लोगों ने अब लक्ष्मी पूजा और कई तरह की मुर्ति पुजा करना शुरू कर दिया हैं लेकिन आदिवासियों के इतिहास में इस तरह के किसी देवी देवता और मूर्ति पूजा का कोई जिक्र नहीं हैं, हमारे पुरखे सदा से हीं प्रकृति और अपने पूर्वजो को ही पूजते आये है।
वही आदिवासी धानतेरस (dhaanteras) पर पकवान में भी पारंपरिक ताये (गेंहू के आटे से बनने वाला व्यंजन), वड़े, पकोड़े , मिर्चीबड़े जैसी चीज़े बना करती थीं | जिसकी जगह अब खीर-पुड़ी और गुलाब जामुन जैसी चीज़े लेती जा रही हैं।
आज रतलामी सेव को भले ही जी आई टैग मिल गया हो रतलामी होने का लेकिन इतिहास के अनुसार सेव बनाने की शुरुआत भी झाबुआ क्षेत्र के भील आदिवासियों ने ही की थी जिसे पहले “भीलड़ी सेव” कहा जाता था। और युद्ध के लिये बाहर जाने वाले योद्धाओं के लिये काफ़ी उपयोगी साबित हुईं क्योंकि सेव कई दिन तक खराब नहीं होती थी। इसके पूर्ण इतिहास और देशभर में पहुँचने की कहानी फिर कभी बताऊंगा।
चौदस का दिन तेरस से भी ज्यादा विशेष माना जाता है क्योंकि चौदस के दिन (कई क्षैत्र मे पड़वा के दिन) सुबह उठते ही घर की चोखट पर दिये जलाकर मुर्गे/वबकरे की बली दी जाती है और हल के साथ जो लकड़ी होती है उसमें जो लोहा छोटा सा लगा होता है जिसे स्थानिय भाषा में ‘अल्ती’ कहते है, (भिन्न-भिन्न क्षेत्रों मे भिन्न-भिन्न नाम हो सकता है) को गर्म करके मवेशियों पर हल्का निशान बनाया जाता है।
मान्यता है कि इससे मवेशी बिमार नहीं होते है। ऐसे निशान कई लोगों के हाथो पर भी लगे मिल जाते है, जो चौदस के दिन ही लगायें जाते है। मुर्गे/बकरे की बली के बाद ही फिर घर से मवेशियों को बाहर निकाला जाता है, हालाँकि कई लोगों ने अब चौदस के दिन बली देना बंद कर दिया है।
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हमारा उद्देश्य जीव हत्या को सही या गलत ठहराना नहीं है खैर खान पान तो फ़िर भी ठिक है लेकिन अपनी परंपराओं को घिरे घिरे भुलना अपने ही अस्तित्व और पहचान को खोने से कम नहीं हैं। आदिवासी समाज सारे पकवान तैयार होने के बाद घर के धारण के पास महुआ रस की धार के बाद अपने आंगन में भी दो बून्द डालते है यही सब रीति रिवाज है |
आखिर में
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